मुक्त व्यापार समझौते या फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (एफ.टी.ए.) विश्व व्यापार संगठन या डब्ल्यूटीओ के अलावा दुनिया में व्यापार को उदारीकृत करने का आज का नया रास्ता है। एफ.टी.ए. द्विपक्षीय समझौते हैं जिनमें दो देश या दो से अधिक देशों के समूह इस बात पर रजामंद होते हैं कि उनके बीच व्यापार में आने वाली रुकावट कम हो या पूरी तरह खतम हो।
पिछले कुछ साल में भारत सरकार लगातार तथाकथित विकासशील देशों या विकसित देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौतों [Bilateral Free Trade Agreement (FTA)] के अवसर तलाशती रही है।
भारत ने श्रीलंका (1998) और थाईलैंड (2003) के साथ सीमित मुक्त व्यापार समझौता (limited FTAs) किया हैं। इसके अतिरिक्त अफगानिस्तान, नेपाल, चिले, और मर्कोसुर के साथ विशेषाधिकारों (preferential) वाले व्यापार समझौते (प्रशुल्क छूट/रियायत स्कीम) भी किए हैं।
कुछ और व्यापार समझौतें है जिसका भारत पहले से ही हिस्सा है जिसमें - ‘दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार समझौता’ (SAFTA), BIMSTEC (Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation) (जिसे पूर्ण एफ.टी.ए. के रूप में विकसित करने के मकसद से किया गया), ‘एशिया-प्रशांत व्यापार समझौता’ (जो बांग्लादेश, चीन, लाओस, दक्षिण कोरिया और श्रीलंका के साथ एक विशेषाधिकारों वाला व्यापार समझौता है), एवं ‘भारत-ब्राजील-दक्षिण अफ्रीका’ (IBSA) (जिसे एक त्रिपक्षीय दक्षिण-दक्षिण देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौते के रूप में विकसित किया जा रहा है) इत्यादि।
जून 2005 के अंत में, भारत सरकार ने सिंगापुर के साथ एक ‘व्यापक आर्थिक सहयोग समझौते’ पर हस्ताक्षर किया। इसे भारत का पहला ‘व्यापक’ (comprehensive) मुक्त व्यापार समझौते के रूप में देखा जा रहा है। भारत ने आसियान (2009), कोरिया (2009) और जापान (2010) के साथ भी व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे जिनकी बाद में काफी आलोचना हुई थी क्योंकि इन तीनों व्यापार भागीदारों के साथ भारत का व्यापार घाटा (trade deficit) काफी बढ़ गया। इसके बाद भी भारत ने 2011 में मलेशिया के साथ एक व्यापार समझौता किया। इसके साथ-साथ भारत कोशिश में है कि वह श्रीलंका के साथ हुए अपने सीमित व्यापार समझौते को एक व्यापक आर्थिक साझेदारी के रूप में बदल सके।
वर्ष 2007-2008 में भारत ने यूरोप का शक्ति-केंद्र माने जाने वाले - ‘यूरोपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र’ (EFTA) और यूरोपीय संघ - के साथ व्यापार वार्ताएं शुरू की। लेकिन 2013 में ये वार्ताएं रुक गईं क्योंकि - यूरोपीय संघ की गाड़ियों (ऑटोमोबाइल) और शराब को स्थानीय बाजार में प्रवेश देने और सार्वजनिक खरीद और वित्तीय सेवाओं (जैसे बैंकिंग, बीमा और ई-कॉमर्स) के लिए अपने बाजार खोलने के लिए भारत तैयार नहीं था।
वर्ष 2010 में भारत ने न्यूजीलैंड के साथ और 2011 में ऑस्ट्रेलिया के साथ एफ.टी.ए. समझौता वार्ता शुरू की। परंतु वर्ष 2013 के आते-आते इनको रोककर भारत एक विशाल 16 देशों वाले ‘क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी’ (आर.सी.ई.पी./RCEP) समझौता वार्ता में शामिल हुआ। इसमें आसियान के 10 देशों के साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया, चीन, जापान, न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया भी शामिल थे। नवंबर 2019 में भारत आर.सी.ई.पी. वार्ताओं से बाहर निकल गया। क्योंकि इसमें भारत को काफी बड़ा व्यापार घाटा (trade deficit) दिख रहा था, विशेष रूप से चीन के साथ। दूसरी तरफ भारतीय सेवाओं और निवेश के लिए आर.सी.ई.पी. के अन्य देश अपने बाजारों को खोलने के लिए तैयार नहीं थे। आर.सी.ई.पी. वार्ताओं में शामिल होने के कारण भारत सरकार को देश के अन्दर बहुत अघिक विवाद और प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, विशेष रूप से किसान संगठनों, ट्रेड यूनियनों, डेयरी सहकारी समितियों और महिला किसानों, एवं रोगी समूहों द्वारा, जो उपचार एवं दवाइयों के ऊपर इसके प्रभाव से चिंतित थे।
आर.सी.ई.पी. से बाहर निकलने के बाद भारत का रुझान दुबारा द्विपक्षीय व्यापार वार्ताओं के प्रति बढ़ने लगा है। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के साथ व्यापार वार्ताओं को फिर से शुरू किया जा रहा है। यूरोपीय संघ (27 देशों का समुह) और EFTA (यूरोप के 4 देशों का समुह) के साथ भी व्यापार वार्ताओं को दुबारा शुरू करने का रास्ता ढूंढा जा रहा है। भारत-अमेरिका व्यापार वार्ताएं भी चल रही हैं, जिससे किसानों और यूनियनों में काफी गुस्सा है, क्योंकि यह भारतीए स्थानीय कृषि के लिए काफी नुकसानदायक होगा।
इन समझौता वार्ताओं के अलावा, बांग्लादेश, कनाडा, कोलंबिया, गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल (GCC), ईरान, इजराइल, रूस के नेतृत्व में ‘यूरेशिया आर्थिक संघ’, उरूग्वे, वेनेजुएला और मोरिशियस, और अंत में अफ्रीका में पैर जमाने के मकसद से ‘अफ्रीकी महाद्वीपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र’ के साथ भारत की द्विपक्षीय व्यापार वार्ताएं चल रही हैं। इस श्रृंखला में कंबोडिया, चीन, कोस्टा रिका, हॉन्ग-कोंग, इंडोनेशिया, कोरिया, फिलीपींस, ‘दक्षिण अफ्रीकी सीमा शुल्क संघ’ (SACU), और यूनाइटेड किंगडम (UK) के साथ भी भारत की व्यापार वार्ताएं अलग-अलग चरणों पर चल रही हैं।
भारत ने अलग-अलग देशों के साथ करीब 86 द्विपक्षीय निवेश संधियों [Bilateral Investment Treaties (BIT)] पर हस्ताक्षर किए हैं, जिनमें से इस वक्त केवल 13 ही लागू हैं। कुछ विवादास्पद ‘निवेशक राज्य विवाद निपटान’ (ISDS) मामलों के बाद भारत ने इन अधिकांश निवेश संधियों (BITs) को समाप्त कर दिया। अब भारत ने इसका एक संशोधित मॉडल दिसंबर 2015 में जारी किया गया है जो भविष्य की वार्ताओं के लिए एक आधार के रूप में काम करेगा। मौजूदा संधियों को इसी माॅडल के अनुसार बदला जाएगा। इस नए मॉडल को संतुलित रूप से बनाने के कोशिश की गई है जिसमें अंतरराष्ट्रीय मुकदमें से पहले निवेशकों को स्थानीय अदालतों से गुजारना होगा; एवं ‘‘निष्पक्ष और न्याय संगत उपचार’’ जैसे अत्यधिक विवादास्पद प्रावधानों को हटाने की बात की गई है। हालांकि अभी तक यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाया है कि भारत सरकार इन प्रावधानों को व्यापार बातचीत शुरू करने के उपाय के रूप में देख रही है या यह वाकई में इनके प्रति गम्भीर है।
आखरी अपडेटः अक्टूबर 2020.
Photo: Rico Gustav/CC BY 2.0